परशुराम भाग - 5 ( रिचिक सेवा का फल )
माता की सलाह को मानकर राजकुमारी( रिचिक पत्नी ) ने अपने पति रिचिक की यथोचित( कठोर ) सेवा की .
एक दिन रिचिक पत्नी सेवा से प्रसन्न होकर बोले - मुझे बहुत दुःख हैं की तुम्हे मुझसे विवाह करना पड़ा मैं जानता हूँ की मुझसे विवाह करके तुम्हे बहुत कष्ट उठाना पड़ रहा हैं, अपने महलो के सुख छोड़ कर तुम्हे मेरे साथ मेरे समान कठोर तपस्वी जीवन जीना पड़ रहा हैं मैं तो इस जीवन का आदि हूँ मैंने इसे स्वयं इसे अपनी इच्छा से चुना हैं पर तुम इस की आदि नही हो, परन्तु मैं कर भी क्या सकता हूँ कभी कभी इश इच्छा बड़ी प्रबल होती हैं और परहित के लिए त्याग अनिवार्य हो जाता हैं.
इतने पर भी तुमने सारे कष्टों को हसते हुए सहा और अपने धर्म का पालन किया मेरी हर प्रकार से सेवा की. कहो तुम्हारी क्या कामना हैं निसंकोच कहो यदि तुम चाहो तो अपने पिता के घर भी जा सकती हो और वहा सुख से रह सकती हो.
प्रभु की आज्ञा मान कर मैंने तुमसे विवाह किया हैं पर मैं तुम्हे जबरन यहाँ नही रखना चाहता. और वेसे भी जो निश्चित होगा वही होकर रहेंगा.
रिचिक की बात सुनकर राजकुमारी बोली - स्वामी ये आप क्या कह रहें हैं मैं कही नहीं जाना चाहती और मुझे यहाँ किसी प्रकार का कष्ट नहीं हैं अपितु मैं तो स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली मानती हूँ की मुझे आप जेसा वर प्राप्त हुआ आप की सेवा का अवसर मिला ,धर्म, आध्यात्म, ज्ञान का ऐसा वातावरण मिला परहित करने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ अवश्य ही किसी जन्म मैं मैंने पुण्य कर्म किये हैं जिसके फलस्वरूप मुझे ये सब देखने को मिला.
रिचिक राजकुमारी की बातों को सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुए. तुम सच में एक उतम कुल की कन्या हो तुम्हारी वाणी से तुम्हारे कुल के संस्कार साफ़ दिखाई पड़ते हैं तुम सच में राजकन्या हो कहो तुम्हारी क्या इच्छा हैं कोई भी वर मांगों प्रिय.
रिचिक के मुख से अपने लिए पहली बार इतने कोमल शब्द सुनकर राजकुमारी को पहली बार विवाहित होने का सुख मिला ऐसा लगा मानो आज रिचिक एक ऋषि के रूप में नही अपितु उनके पति के रूप में उनसे बात कर रहें हो और एक पत्नी होने के नाते पति से कुछ भी मांगने का अधिकार तो राजकुमारी को स्वत ही प्राप्त हैं.
राजकुमारी (रिचिक पत्नी) थोड़ी लज्जाती हुई बोली स्वामी यदि आप सच में मुझ पर प्रसन्न हैं यदि आप सच में मुझे कुछ देना चाहते हैं तो में आप से एक पुत्ररुपी रत्न मांगती हूँ.
और पुत्र के साथ साथ ये मांगती हूँ की मेरे पिता के पश्चात राज्य को सम्भालने के लिए व् राजा बनने के लिए मेरी माता को एक पुत्र और मुझे एक भाई प्राप्त हो.
ऋषि मुस्कुराये वो प्रभु लीला को समझ गये उनके श्रीमुख से अमृतवचन निकले - तथास्तु
एक सुखी ग्रहस्थी के लिए पति और पत्नी के बीच आपसी समझ होना आवश्यक हैं परिस्थिति केसी भी हो समय केसा भी हो सुख हो या दुःख दाम्पत्य जीवन मैं एक दुसरे का साथ निभाना ही ग्रहस्थ आश्रम की कुंजी हैं.
( सुख और विशवास की कुंजी जेसा की इस प्रसंग मैं देखने मैं आता हैं.)
माता की सलाह को मानकर राजकुमारी( रिचिक पत्नी ) ने अपने पति रिचिक की यथोचित( कठोर ) सेवा की .
एक दिन रिचिक पत्नी सेवा से प्रसन्न होकर बोले - मुझे बहुत दुःख हैं की तुम्हे मुझसे विवाह करना पड़ा मैं जानता हूँ की मुझसे विवाह करके तुम्हे बहुत कष्ट उठाना पड़ रहा हैं, अपने महलो के सुख छोड़ कर तुम्हे मेरे साथ मेरे समान कठोर तपस्वी जीवन जीना पड़ रहा हैं मैं तो इस जीवन का आदि हूँ मैंने इसे स्वयं इसे अपनी इच्छा से चुना हैं पर तुम इस की आदि नही हो, परन्तु मैं कर भी क्या सकता हूँ कभी कभी इश इच्छा बड़ी प्रबल होती हैं और परहित के लिए त्याग अनिवार्य हो जाता हैं.
इतने पर भी तुमने सारे कष्टों को हसते हुए सहा और अपने धर्म का पालन किया मेरी हर प्रकार से सेवा की. कहो तुम्हारी क्या कामना हैं निसंकोच कहो यदि तुम चाहो तो अपने पिता के घर भी जा सकती हो और वहा सुख से रह सकती हो.
प्रभु की आज्ञा मान कर मैंने तुमसे विवाह किया हैं पर मैं तुम्हे जबरन यहाँ नही रखना चाहता. और वेसे भी जो निश्चित होगा वही होकर रहेंगा.
रिचिक की बात सुनकर राजकुमारी बोली - स्वामी ये आप क्या कह रहें हैं मैं कही नहीं जाना चाहती और मुझे यहाँ किसी प्रकार का कष्ट नहीं हैं अपितु मैं तो स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली मानती हूँ की मुझे आप जेसा वर प्राप्त हुआ आप की सेवा का अवसर मिला ,धर्म, आध्यात्म, ज्ञान का ऐसा वातावरण मिला परहित करने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ अवश्य ही किसी जन्म मैं मैंने पुण्य कर्म किये हैं जिसके फलस्वरूप मुझे ये सब देखने को मिला.
रिचिक राजकुमारी की बातों को सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुए. तुम सच में एक उतम कुल की कन्या हो तुम्हारी वाणी से तुम्हारे कुल के संस्कार साफ़ दिखाई पड़ते हैं तुम सच में राजकन्या हो कहो तुम्हारी क्या इच्छा हैं कोई भी वर मांगों प्रिय.
रिचिक के मुख से अपने लिए पहली बार इतने कोमल शब्द सुनकर राजकुमारी को पहली बार विवाहित होने का सुख मिला ऐसा लगा मानो आज रिचिक एक ऋषि के रूप में नही अपितु उनके पति के रूप में उनसे बात कर रहें हो और एक पत्नी होने के नाते पति से कुछ भी मांगने का अधिकार तो राजकुमारी को स्वत ही प्राप्त हैं.
राजकुमारी (रिचिक पत्नी) थोड़ी लज्जाती हुई बोली स्वामी यदि आप सच में मुझ पर प्रसन्न हैं यदि आप सच में मुझे कुछ देना चाहते हैं तो में आप से एक पुत्ररुपी रत्न मांगती हूँ.
और पुत्र के साथ साथ ये मांगती हूँ की मेरे पिता के पश्चात राज्य को सम्भालने के लिए व् राजा बनने के लिए मेरी माता को एक पुत्र और मुझे एक भाई प्राप्त हो.
ऋषि मुस्कुराये वो प्रभु लीला को समझ गये उनके श्रीमुख से अमृतवचन निकले - तथास्तु
एक सुखी ग्रहस्थी के लिए पति और पत्नी के बीच आपसी समझ होना आवश्यक हैं परिस्थिति केसी भी हो समय केसा भी हो सुख हो या दुःख दाम्पत्य जीवन मैं एक दुसरे का साथ निभाना ही ग्रहस्थ आश्रम की कुंजी हैं.
( सुख और विशवास की कुंजी जेसा की इस प्रसंग मैं देखने मैं आता हैं.)
Dhany hai richik patni jinme lajjaa
ReplyDeleterupi aabhushan thaa varnaa nirlajj striyaa manokaamanaa purti ke liye kyaa kyaa nahi karati
SACH KHA AAPNE.
DeleteUNKI KITNI HI MANOKAMNAYE PURI KYO NA HO JAYE PAR ANT MAIN UNHE APNE KRMO KE FAL SWRUP DUKH HI BHOGNA PDTA HAIN.