धर्म कोई सा भी हो
धार्मिक होना बहुत अच्छा है
परन्तु धर्मांध होना बिलकुल गलत है
धार्मिक व्यक्ति उदार सहिष्णु
उदार मना होता है
जबकि धर्मांध मात्र
अपने धर्म को ही श्रेष्ठ समझता है
दुसरो के धर्म को
हेय और निकृष्ट समझता है
धर्मांध व्यक्ति के मस्तिष्क की स्थिति
उस कक्ष की तरह होती है
जिसमे मात्र एक ही दरवाजा होता है
हवा और प्रकाश के आने जाने के लिए कोई खिड़किया उजालदान नहीं होते है
जिस प्रकार से बंद कक्ष में
ऑक्सीज़न की कमी से घुटन सी होती है
उसी प्रकार धर्मांध व्यक्ति का
मस्तिष्क जीवन के संजीवनी
प्रदान करने वाले चिंतन के अमृत से
वंचित रह जाता है
धार्मिक व्यक्ति अपने धर्म को
अच्छा मानने के अतिरिक्त
प्रत्येक धर्म के
सकारात्मक पक्ष को महत्व देता है
उसके चिंतन के झरोखो से
निरंतर ताजे विचारो की प्राण वायु
आंतरिक चेतना की
अभिसिंचित करती रहती है
धर्मांध व्यक्ति क्रूर हो सकता है
जबकि धार्मिक व्यक्ति
संवेदना से भरपूर होता है
धार्मिक व्यक्ति कला साहित्य संगीत का
मर्मज्ञ होता है प्रगतिशील होना
उसकी पहचान होती है
इसलिए जो व्यक्ति धार्मिक होते है
वे निरंतर प्रगति पथ पर उन्मुख रहते है
इसलिए धार्मिक बनो धर्मांध नहीं
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